कितनी गालियाँ, कितने मकान
कितने दरिया, कितने मचान
होकर चला ये मन मेरा
किसी चौराहे एक लम्हा छोड़ा
किसी दरवाज़े एक ख्वाब
किसी खिड़की से चाहत झांके
मुझे करने को अलविदा
कहीं आस का कतरा कतरा
पड़ा गली चौबारे
खींच शरीर को मैं यूँ अपने
घूमूं द्वारे द्वारे।
जैसे हो खाली हर मकान
बस ईंटों की हो दीवार
खिड़की ताक रही वीराना
खोले पट खड़ा वो शांत
चाह रौशनी की लेकर
आत्म विहीन मेरा मन मकान !!
कितने दरिया, कितने मचान
होकर चला ये मन मेरा
किसी चौराहे एक लम्हा छोड़ा
किसी दरवाज़े एक ख्वाब
किसी खिड़की से चाहत झांके
मुझे करने को अलविदा
कहीं आस का कतरा कतरा
पड़ा गली चौबारे
खींच शरीर को मैं यूँ अपने
घूमूं द्वारे द्वारे।
जैसे हो खाली हर मकान
बस ईंटों की हो दीवार
खिड़की ताक रही वीराना
खोले पट खड़ा वो शांत
चाह रौशनी की लेकर
आत्म विहीन मेरा मन मकान !!