बहती है मंद मंद , वो मन को छू के जाती है
बवंडरो से सबको ,समेटे ही ले जाती है..
घेरे खड़े हमें वो , एहसास यूँ दिलाती
देती है प्राण सबको ... मोल उसका कुछ नहीं !
पहाड़ों के झरोखों से, कल कल वो बहता रहता
इठलाता बलखाता , मद मस्त कहता रहता
संचित करूँ मैं जीवन धरा के कण कण में..
सींचे जो सूखी आशा ...मोल उसका कुछ नहीं !
धीरे से गुनगुना के , सवेरे को वो जगाये
भर दे उजालो से , मेरे मन के सारे साये
जूझ के अंधेरों से, झिलमिल वो मुस्कोराए.
.हर दिन मुझे नया दे ..मोल उसका कुछ नहीं !
ऊँचाइयों से ऊँचा , हमें छेड़ता वो रहता
आदि न अंत उसका , हर सू ही फैला दिखता
आँचल अपने दोनों रात दिन समेटे रहता
सतरंगी सपने लपेटे हरपल.. मोल उसका कुछ नहीं !
No comments:
Post a Comment