Friday, December 10, 2010

बेफ़िक्री ..!

पूछो न  बिजली से तड़प का  सबब..
वो हँस के नशेमन  पे गिर जाएगी..
तो तामीर फिर से करो आशियाँ..
वरना जन्नत तुम्हारी बिखर जाएगी..

करना चाहो कभी  जो  हवाओं को क़ैद..
मुमकिन नहीं है  क़ि कर पाओगे..
क़ि सांसें भी बस में नहीं हैं जनाब..
आँधियों का रुख क्या बदल पाओगे ..

 खिलाता समंदर जो लहरों  पे अपनी..
  तो  कश्ती तुम्हारी चली जा रही..
न पतवार चाहे ..न मांझी  ही वो..
अपने किनारे वहीँ  पा रही..

किसी ख्वाब का पकड़ो दामन कभी..
इन नजारों को उनमें समेटो कभी ..
 बिजली का तड़पना समझ आएगा..
महके जो  खुशबू से शामियाना कभी..
हवाओं का फिरना  समझ आएगा..
किनारे पे चूमे जो आके क़दम...
ज़र्फ़ समंदर का तुमको समझ आएगा ..
क़ैद हो के कभी ख्वाब रहता नहीं ..
वरना मंज़िल  क़ि राहें वो चुनता नहीं ..
ये नज़ारे.. बेबाक़ नीयत के मारे...
 उनका बेफिक्र होना समझ आएगा ...!

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