Friday, November 12, 2010

मोल..अनमोल...!

बहती है मंद मंद , वो मन को छू के जाती है 
बवंडरो से सबको ,समेटे ही ले जाती है..
घेरे खड़े हमें वो , एहसास यूँ दिलाती
देती है प्राण सबको ... मोल उसका कुछ नहीं ! 
 
पहाड़ों के झरोखों से, कल कल वो बहता रहता
इठलाता बलखाता , मद मस्त कहता रहता
संचित करूँ मैं जीवन धरा के कण कण में..
सींचे जो सूखी आशा ...मोल उसका कुछ नहीं !

धीरे से गुनगुना के , सवेरे को वो जगाये
भर दे उजालो से ,  मेरे मन  के  सारे साये 
जूझ के अंधेरों से, झिलमिल वो मुस्कोराए.
.हर दिन मुझे  नया दे ..मोल उसका कुछ नहीं !

ऊँचाइयों से ऊँचा , हमें छेड़ता वो रहता 
आदि न अंत उसका , हर सू ही फैला  दिखता
आँचल अपने दोनों रात दिन समेटे रहता 
सतरंगी सपने लपेटे हरपल.. मोल उसका कुछ नहीं !











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