Friday, November 12, 2010

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कह रहा है शोर-ऐ-दरिया से समुंदर का सुकूं..
जिसमे जितना ज़र्फ़ है , वो उतना ही ख़ामोश 


समुंदर को पाना ही ..दरिया की मंजिल है..
खुद को भूल जाना ही , दरिया की मंजिल है..
इसमें जो सुकून है ..वो किसी और मैं नहीं.
अपने मुक्कद्दर पे फ़ना हो जाना ही दरिया की मजिल है


 ज़िन्दगी के नजराने को फना हो के ही पाते हैं.
.क़यामत के दामन में ही ख्वाब मुस्कुराते हैं..
कोई तो चलके अनजान सफ़र पे..
सबके लिए जन्नत के रास्ते छोड़ जाते हैं .

मुक़द्दर के गुलाम तो नहीं..
अपनी सपनो से पहचान बनाते हैं..
पर ज़िन्दगी का कोई ईमान भी तो नहीं..
कभी कभी मुक़द्दर को सलाम कर जाते हैं .

किसी को तो खोजती थी उनकी नज़रें...
समझ के हमसफ़र की तलाश ...
हम रूबरू हुए..पर टिक कर ज़रा देर ...
वो हमें मील का पत्थर समझ..रुखसत हुए

मेरी मज़ार पे आ के आंसूँ न बहाना..
के हँस के गुजारी है मैंने ज़िन्दगी..
मेरी जान जाने का ग़म न मनाना..
के चैन से सो रही है..मेरे पहलू में ज़िन्दगी.

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